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"An International Journal Devoted to Conservation of Environment"

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यौगिक ग्रन्थों में प्राणतत्वः एक विवेचन

Vikas and Suman

चै0 रणबीर सिंह विश्वविद्यालय, जीन्द (हरियाणा)

Abstract

प्रस्तुत शोध अध्ययन का उद्देश्य यौगिक ग्रन्थों में वर्णित प्राणतत्व, प्राण का स्वरूप, प्राण के भेद, प्राण के कर्म का वर्णन करना है। प्राण सभी जीवित प्राणियों के जीवन का आधार है। प्राण के अभाव में जीवन के अस्तित्व् की कल्पना नामुमकिन है। प्राण को हम ऊर्जा, तेज अथवा शक्ति भी कह सकते है। प्राण प्रत्येक उस वस्तु में प्रवाहित होता है। जिसका अस्तित्व होता है। प्राण भौतिक संसार, चेतना और मन सभी शारीरिक कार्यों को विनियमित करता है। उदाहरणार्थ श्वास, आक्सीजन की आपूर्ति, पाचन, निष्कासन- अपसर्जन आदि। मानव शरीर का कार्य एक ट्रांसफार्मर की भांति है जो विश्व भर में प्रवाहित प्राण से ऊर्जा प्राप्त करता है।। और ऊर्जा का आंवटन करता है व फिर इसे समाप्त कर देता है। यदि प्राण को ब्रहमांड से वापस ले लिया जाए तो पूर्ण विघटन हो जायेगा। सजीव हो या निर्जिद, सभी प्राणी प्राण के कारण ही जीवित हें सृष्टि की हर एक अभिव्यक्ति ऊर्जा कणो के अनन्त जालक का ही अंग है, जिसमें ऊर्जा -कण भिन्न -भिन्न घनत्व, सयोंजन और प्रकारन्तर के साथ व्यवस्थित के साथ व्यवस्थित है। प्राण का सार्वभौम सिद्धांत स्थैतिक या गत्यात्मक किसी भी अवस्था के लिए हो सकता है, लेकिन यह उच्चतम से लेकर निम्नतम जीवों के अस्तित्व के हर स्तर का आधार होता है। प्राण सबसे सरल होते हुए भी द्रष्टाओं द्वारा प्रस्तुत की गयी सबसे गूढ अवधारणा है। सृष्टि की प्रत्येक वस्तु प्राण के विशाल, सर्वव्यापी सागर में तैर रही हें और उसी में से अपने लिए आवश्यक तत्वें को प्राप्त कर लेती है। हर व्यक्ति में प्राण की मात्र उसके व्यक्तित्व की शक्ति से निदर्शित होती है, जो प्राण को नियंत्रित करने की उसकी स्वाभाविक क्षमता को प्रतिबिंबित करती है। कुछ लोग अपने प्राण स्तर के कारण दूसरो की अपेक्षा अधिक सफल, प्रभावशाली और मोहक होते है। प्रत्येक योग विज्ञान -मंत्र, यज्ञ, तप, एकाग्रता एंव ध्यान के विभिन्न अभ्यासों का उद्देश्य होता है- प्रत्येक व्यक्ति या व्यापक ब्रहाण्ड में स्थित प्राणशक्ति को जागृत करना और उसका विस्तार करना ।

 

प्राणतत्व, यौगिक ग्रन्थों, विज्ञान- मंत्र, यज्ञ

तँ् हाड्गरा उदीथमुपासाचक्र एतमु एवाडिगरस मन्यन्तेऽड्गानां यद्रसः।। ( छान्दोग्योपनिषद, गीताप्रेस गोरखपुर, 2/2/10

तेन तँ्ह बृहस्पतिरूदगीभमुपासाचक एतमु एवं बृहस्पति मन्यन्ते वाग्धि बृहती तस्या एष पतिः।। (छान्दोग्यपनिषद, गीताप्रेस गोरखपुर, 2/2/11

प्राणस्य सर्वमन्रं प्राणोऽत्त (छान्दोग्यपनिषद, गीताप्रेस गोरखपुर,, 5/2/1

प्राण एवं मित्र प्राण एव परः सखा। प्राणतुल्यः परो बन्धुर्नास्ति नास्ति वरानने।। (शिव स्वरोदय, श्लोक संख्या 219)

यदिंद किं च जगत्सर्व प्राण एजति निःसृतम् (कठोपनिषद् 2/3/2)

हिरदै में अस्थान है, प्रानवायु का जान।
वाके राके सबरूकै, वायुन में परधान।।
जैसे गंगा एकही, घाट घाट के नावै।।
ऐसे प्राणहि वायुके, नावै कहे बहु ठावे।।
चैरासी अस्थान पर, चैरासीही वायु।।
(अष्टाग योग, ओमप्रकाश तिवारी पृष्ठ संख्या 23,52)

प्राणोऽत्र मुर्धगः। उरः कण्ठचरो बुद्धिह्नदयेन्द्रियचित्त्धृक।।
ष्ठीवनक्षवयूदारनिः क्शसात्रप्रवेशकृत। (अष्टाग हृदयम्, डा0
ब्रहमानन्दत्रिपाठी, 12/14)

यो वायुवक्त्रसंचारी स प्राणोनाम देहघृक।
सोऽन्न प्रवेशयव्यन्तः प्राणाश्वाप्यवलम्बते।।
प्रायशः कुरूते दुष्टो हिक्काक्श्वासादिकान् गदान्।
(सू0 स0, अत्रिदेव, निदानस्थानम्, 1/13)

संस्थान प्राणस्य मूर्धोरःकण्ठजिह्नास्यनासिकाः।
ष्ठीवनक्ष्वथूदगाश्वासाहाररादिकर्म च।। (चरक सहिता, डा0 ब्रहमानन्दत्रिपाठी ,चिकित्सास्थानम् 28/6)

बसै अपान गुदा के माही।। (अष्टांग योग, ओमप्रकाश तिवारी, पृष्ठ संख्या 23 एश्लोक संख्या 54)

अपनोऽ पानगः श्रोणिबस्तिमेढोरूगोाचरः।
शुक्रार्तवशकृन्मूत्रगर्भनिष्क्रमणक्रियः।। (अष्टाग ह्नदयम्, डा0 ब्रहमानंद त्रिपाठी,12/9 )

पक्वाधानालयोऽ पानः काले कर्षति चाप्यधः।
वात-मूत्र- पुरीषाणि शुक्रगर्भार्तवानि च ।। क्रुद्धश्च कुरूते रोगान्
घोरन् बस्तिगुदाश्रयान्।। (सु0स0, अत्रिदेव, निदानस्थानम् 1/19)

वृषणौ बस्ति मेढ् च नाभ्यूरू वंक्षणौ गुदम्। स्वकर्म कुर्वते देहो धार्यते तैरनामयः ।। (च0स0, डा0 ब्रहमानंद त्रिपाठी चिकित्सास्थानम्, 28/10)

कंठ माहि बाई उद्रूाना।। (अष्टांग योग, ओमप्रकाश तिवारी , पृष्ठ ख्या 23 श्लोक संख्या 54)

उरःस्थानमुदानस्य नासानाभिगलां श्चरेत्।
वात्प्रवृतिप्रयत्नोर्जाबलवर्णस्मृतिक्रियः।। (अष्टाग हृदयम, डा0 बृहमानन्द त्रिपाठी, 12/5)

उदानो नाम यस्तुध्वर्वमुपौति मुपैति पवनोत्तमः।। तेन भाषितगीताविशेषोडमिप्रवर्तते। ऊधर्वजत्रुगतान् रोगान् करोति च विशेषतः।। (सु0स0, अत्रिदेव, निदानस्थानम्, 1/14,15)

उदानस्य पुनः स्थान नाभ्युरः कण्ठ एंव च। वाक्प्रवृतिःप्रयत्नोर्जो बलवर्णादि कर्म च।। (च0स0, डा0 ब्रहमानंद त्रिपाठी चिकित्सास्थानम्, 28/7)

वायु समान नाभि अस्थाना। (अष्ठाग योग, ओमप्रकाश तिवारी , पृष्ठ संख्या 23श्लोक संख्या 54 )

समानोऽ ग्रिसमीपस्थः कोष्ठे चरति सर्वत। अत्रं गृहणति पचाति विवेचयति मुत्र्चति। (अष्टांग हृदयम, डा0 बृहमानन्द त्रिपाठी 12/8)

आमक्वाशयचरः समानो वहिनसड्गत सोऽ न्ना पचति तज्जांशय विशेषान्विविनक्ति हि।। गुल्माग्निसादातीसारप्रमृतीन् कुरूते गदान्। (सु0स0 , अत्रिदेव, निदानस्थानम्, 1/16)

स्वेददोषाम्बुवाहीनिस्त्रोतासिं समधिष्ठितः। अन्तरग्नेश्व पाश्वस्थः समानोऽ ग्निबलप्रदः (च0स0, ब्रहमानंद त्रिपाठी,) चिकित्सास्थानम्, 28/8)

व्यान जु व्यापक है तन सारै ।। (अष्टाग योग, ओमप्रकाश तिवारी, पृष्ठ संख्या 23, श्लोक संख्या 54)

व्यानो हृदि स्थितः कृत्स्नदेहचारी महाजवः  गत्यपक्षेणोत्क्षेपनिमेषोन्मेषणः प्रायः सर्वाः क्रियास्तस्मिन् प्रतिबद्धाः शरीरिणाम्।। (अष्टाग हदयम, डा0 बृहमानन्द त्रिपाठी, 12/6-7)

कृत्स्नदेहचारो व्यानो रससवहनोद्यतः स्वेदासृकस्त्रः वण्श्चापि पचधां चेष्टयत्यपि। क्रुद्धश्च कुरूते रोगान् प्रायशः सर्वदेहगान्। (सु0स0, अत्रिदेव, निदानस्थानम् 1/17,18)

देह व्याप्नोति सर्व तु व्यानः शीघ्रगतिर्नृणाम्। गतिप्रसारणक्षेपनिमेषादिक्रियः सदा। (च0स0, डा0 ब्रहमानंद त्रिपाठी, चिकित्सास्थानम्, 28/6)

प्राण एवं प्राणायाम, स्वामी निरंजमानन्द सरस्वती, पृष्ठ संख्या 56

प्राण एवं प्राणायाम, स्वामी निरंजमानन्द सस्रस्वती , पृष्ठ संख्या 56

प्राण एवं प्राणायाम, स्वामी निरंजमानन्द सस्रस्वती , पृष्ठ संख्या 56

प्राण एवं प्राणायाम, स्वामी निरंजमानन्द सस्रस्वती , पृष्ठ संख्या 57

प्राण एवं प्राणायाम, स्वामी निरंजमानन्द सस्रस्वती , पृष्ठ संख्या 57

प्राण एवं प्राणायाम, स्वामी निरंजमानन्द सस्रस्वती , पृष्ठ संख्या 57

चले वाते चलं चितं निश्चले निश्चलं भवेत्। योगी स्थाणुत्वमाप्नोति ततो वायुं निरोधयेत्।। हठयोग प्रदीपिका (2/2)

यावद्वायुः स्थितो देहे तावज्जीवनमुच्यते। मरण तस्य निष्क्रातिस्ततो वायु निरोधयेत्।। हठयोग प्रदीपिका (2/3)

मारूते मध्यसंचारे मनः स्थैर्य प्रजायते । यो मनः सुस्थिरीभावः सैवावस्था मनोन्मनी।। हठयोग प्रदीपिका (2/42)

सर्वाणीनिन्द्रयकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे। आत्मसयमयोगगाग्नौ जुहवति ज्ञानदीपिते।। (श्रीमद्भगवद्गीता, 4/27)

अपाने जूहवति प्राणं प्राणेऽ पानं तथापरे प्राणापानगती रूद्ध्वा प्राणायामपरायणाः अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जूहवति। (श्रीमद्भगवद्गीता, 4/29,30)

स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाहाश्चक्षु श्रचैवान्तरे भ्रवो।
प्राणपानौ समौ कृत्वा नासाभ्यान्तर चारिणौ।।
यतोद्रियमनो बुद्विर्मुनिर्मोक्षिपरायणः।
विगतेच्छोभय को्रधो याः सउा मुक्त एव स ।। (श्रीमदभगवद्गीता, 5/27,28)

सर्वद्वाराणि सयम्य मनो हदि निरूध्य च।
मूध्न्यधिायात्मनः प्राण्मास्थितो योगाधारणाम्।।
( श्रीमदभगवद्गीता, 8/12)

अहं वैश्वानरो भुत्वां प्राणिनां देहमाश्रितः।
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्न चतुर्विधम्।।
(श्रीमदभगवद्गीता, 15/14)

सर्वाणि ह वा इमानि भूतानि प्राणम3ेवाभिंसविशन्ति,
प्राणमभ्युज्जिहते (छान्दोग्यपनिषद 1/11/5)

प्राणं देवा अनुप्राणन्ति। मनुष्याः पशवच्श्र ये। प्राणी हि भूतानामायुः। तस्मात्सर्वायुषमुच्यते। (तै0 उ0 ब्रहावल्ली अनु0 03)

प्राणो ब्रहमोति व्यजानत्। प्राणाद्धयेव खल्विमानि।
भुतानि जायन्ते। प्राणेन जाताति जीवाान्ति। प्राणं
प्रयन्तभिसंविशन्तीति । (तौ0 30 भृगुवल्ली अनु03)

यदिदं कि च जगत्सर्व प्राण एजति निःसृतम्।। (कठोपनिषद्, 2/3/2)

अरा इव रथनाभौ प्राणे सर्वं प्रतिष्ठितम्।
ऋचो यजूऋषि सामानि यज्ञः क्षत्रं ब्रहमा च।। (प्रश्नोपनिषद् 2/6)

प्रजापतिश्वसि गर्भे त्वमेव प्रतिजायसे।
तुभ्यं प्राण प्रजास्त्विमा बलिं हरन्ति यः प्राणौ प्रतितिष्ठसि ।। ( प्रश्नोपनिषद् 2/7)

इन्द्रस्त्व प्राण तेजसा रूद्रोऽ सि परिरक्षिता।
त्वमन्तरिक्षे चरसि सुर्यस्तवं ज्रूोतिषां पतिः।। ( प्रश्नोपनिषद् 2/9)

प्राणस्येदं वशो सर्वत्रिदिवे यत्प्रतिष्ठितम्।
मातेव पुत्रान् रक्षस्व श्रीश्व प्रज्ञां च विधेहि न इति ।। ( प्रश्नोपनिषद् 2/13)

आत्मन एष प्राणो जायते।
यथैषा पुरूषे छायैतस्मिन्नेतदातंत
मनोकृतेनायात्यास्मित्र्शरीरे।। ( प्रश्नोपनिषद् 3/3)

पायूपस्थेऽ पानं चक्षुः श्रोत्र मुखनासिकाभ्यां प्राणः स्वयं
प्रातिष्ठतेमध्ये तु समानः।
एष हयेतद्धुतमन्नं समं नयति तस्मादेताः सप्तार्चिषो भवन्ति।। ( प्रश्नोपनिषद् 3/5)

आदित्यों ह वै बाहयः प्राण उदयत्येष होयनं चाक्षुषं प्राणमनुगहन।
पृथिव्यां या देवता सैषा पुरूषस्यापानमवष्टभ्यान्तरा यदाकाशः स समानो वायुव्र्यान। ( प्रश्नोपनिषद् 3/8)

तेजो ह वा उदानस्तस्मादुपशान्ततेजाः पुनर्भवामिन्द्रियैर्मनसि सम्पद्यमानैः।। (प्रश्नो 03/9)

प्राणिति स प्राणे यद्रपानिति सोऽ पानः।
अथ यः प्राणापानयोः सन्धिः स व्यानोः स वाक्।

Vikas and Suman (2019). यौगिक ग्रन्थों में प्राणतत्वः एक विवेचन Environment Conservation Journal20(SE), 135-142.

https://doi.org/10.36953/ECJ.2019.SE02026

Received: 09.09.2019

Revised: 24.10.2019

Accepted: 29.11.2019

First Online: 13.12. 2019

:https://doi.org/10.36953/ECJ.2019.SE02026

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